Thursday, December 13, 2007

एक कविता

आदत पड़ चुकी है
तेरे विचारों
और उद्घोषणाओं का बोझ लादने की
मेरी सोच पर है
तेरा नियंत्रण
मेरे निर्णय
मेरे अपने नहीँ
संचालित हो रहा है
मेरा सब कुछ
मेरे प्रतिनिधि के द्वारा
बेहत्तर की कल्पना के लिए
तेरे हाथों में सोंपा था
बच्चों का भविष्य
बूढ़ी माँ को
जीवन के सुखद-आरामदेह
अंतिम क्षण देने की शपथ
सब कुछ ...
अब आती है तरस
खुद पर
और दोषी करार करता हूँ
स्वयं को
कुछ था
जो उस वक्त
समझ नहीं पाया था ...

तू ठहरा
आकाश का प्राणी
और तेरे आशीष
उपर से निकलकर
उधर ही
तुम्हारे इर्द-गिर्द
सुरक्षा-घेरों द्वारा
सोक लिए जाते हैं

और पृथवी पर हम
आशा बाँधे बैठे हैं
कि कब हमारी ज़मीन पर
तेरे कदम न सही
तेरी कृपा की
एक बूँद टपक पड़े।

विनय
22/09/07